Kundeshwar Mandir Tikamgarh | कुंडेश्वर मंदिर टीकमगढ़
Kundeshwar Mandir Tikamgarh की एक अलग कहानी है, जिस शिवलिंग को बड़े-बड़े पहलवान हिला नही पा रहे थे उसे भोलेनाथ के भक्त महाराजा प्रतापसिंह ने केवल अंजुली बनाकर स्थापित करा दिया। उस दिन से नगर के महेंद्र सागर तालाब पर विराजे भोलेनाथ के नाम के साथ उनके भक्त प्रतापसिंह का नाम जुड़कर प्रतापेश्वर हो गया।
महेंद्र सागर तालाब किनारे विराजे भोलेनाथ का मंदिर नगर के लोगों की विशेष आस्था का केन्द्र है।मंदिर में विशाल शिवलिंग के साथ उनके नंदी वाहन,गणेश और माता पार्वती विराजी है। जबकि मंदिर परिसर में ही भगवान राम के दूत आदमकद रूप में हनुमान जी के दर्शन लोगों के कष्टों को हरते है।
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मंदिर का कोई ट्रस्ट न होने के बावजूद मंदिर के पुजारी और वहां आने वाले श्रद्वालुओं के द्वारा मंदिर के आसपास लगातार विकास कराया जा रहा है।
इतिहासकार शिवलिंग की स्थापना को लेकर भी कई किस्से सुनाते है।इतिहासवेत्ता सीताराम सिरवैया कहते है कि वर्ष 1908 में महेंद्र सागर तालाब और तालकोठी के निर्माण के साथ ही शिव मंदिर का निर्माण महाराज प्रताप सिंह ने करवाया था। महाराजा भगवान भोलेनाथ के अनन्य भक्त थे।कुण्डेश्वर में शिवलिंग की स्थापना कराने के बाद महाराजा रोजाना गंगाजल से उनका अभिषेक करने जाते थे।
महेंद्र सागर तालाब और तालकोठी के निर्माण के समय अपने आराध्य भोलेनाथ के मंदिर का निर्माण कराया। जिसके लिए वह नेपाल से स्फटिक शिवलिंग लाए थे। इस दौरान उनके मन में विचार आया कि कुण्डेश्वर के शिवलिंग की स्थापना यहां कराई जाए।
जिसके लिए उन्होंने शिवलिंग की थाह लेने के लिए खुदाई कराई। किवदंतियों के अनुसार कुण्डेश्वर शिवलिंग की थाह न मिलने पर उन्हें भोलेनाथ के द्वारा स्वप्न में कहा गया कि वह नेपाल से लाए शिवलिंग को ही वहां विराजमान कराएं। जिससे उनका नाम भी भोलेनाथ के साथ जोड़कर देखा
कुंडेश्वर मंदिर
टीकमगढ़ से 5 किलोमीटर दक्षिण में जमड़ार नदी के किनारे यह गाँव बसा हुआ है। गांव कुंडदेव महादेव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है कहा जाता हैकि मंदिर के शिवलिंग की उत्पत्ति एक कुंड से हुई थी। इसके दक्षिण में सुंदर पिकनिक स्थल है
जिसे ‘बैरीघर’ के नाम से जाना जाता है और ‘उषा वाटर फॉल’ के नाम से जाना जाने वाला एक सुंदर झरना भी है। इस गांव में ऐक्रोलॉजिकल म्यूजियम और विनोबा संस्थान है। महाराजा बिरसिंह देव ने कुंडेश्वर साहित्य संस्थान की स्थापना की, जो कुंडेश्वर में अपने प्रवास के दौरान पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और यसपाल जैन द्वारा संचालित किया गया था।
कुण्डेश्वर स्थित देवाधिदेव महादेव आज भी शाश्वत और सत्य है, इसका जीता-जागता प्रमाण स्वयं प्रतिवर्ष चावल के बराबर बढऩे वाला शिवलिंग है। समूचे क्षेत्र में इसे तेरहवें ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है।
प्राचीन काल से इस मंदिर का विशेष महात्व है। कहते है आज भी वाणासुर की पुत्री ऊषा यहां पर पूजा करने के लिए आती है। शिव की मूर्ति के मिलने का समाचार सुनकर वल्लभाचार्य जी यहाँ आए और तैलंग ब्राह्मणों द्वारा मूर्ति का संस्कार कराया और वहीं प्रतिष्ठित किया। मूति एक कुंड से प्राप्त हुई थी, इसी कारण से यह ‘कुंडेश्वर’ कहा जाता है। ‘शिवरात्रि’, ‘मकर संक्रांति’ और ‘बसंत पंचमी’ के अवसर पर यहाँ भारी मेला लगता है। यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा सच्चे मन से मांगी गई हर कामना पूरी होती है
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